ज़िंदगी यूँ तो सब जी रहे हैं मगर | इस तरह का हो जीना तो क्या बात है / Zindagi Yun To Sab Jee Rahe Hain Magar | Is Tarah Ka Ho Jeena To Kya Baat Hai


ज़िंदगी यूँ तो सब जी रहे हैं मगर,
इस तरह का हो जीना तो क्या बात है
दाएँ बग़दाद हो, बाएँ अजमेर हो
सामने हो मदीना तो क्या बात है

मुश्क-ओ-‘अंबर की भी मुझ को हाजत नहीं
‘इत्र की भी मुझे अब ज़रुरत नहीं
बा’द मरने के रुख़ पर मलो, दोस्तो
मुस्तफ़ा का पसीना तो क्या बात है

ज़िंदगी यूँ तो सब जी रहे हैं मगर,
इस तरह का हो जीना तो क्या बात है.

हम चले काश ! घर से जो तयबा नगर
हो शुरू’ आ’ला हज़रत के दर से सफ़र
मेरी माँ की दु’आ हो शरीक-ए-सफ़र
आए हज का महीना तो क्या बात है

या ख़ुदा ! बस यही इल्तिजा है मेरी
कू-ए-सरकार में हाज़िरी हो मेरी
फ़ज्र का वक़्त हो और जुम्मे का हो दिन
और हो हज का महीना तो क्या बात है

है तमन्ना मेरी, आरज़ू है यही
काश ! मैं देख लेता जो रू-ए-नबी
रश्क करता मुक़द्दर मेरी मौत पर
होता शहर-ए-मदीना तो क्या बात है

एक ताजुश्शरी’आ हैं रहबर मेरे
जिन का साया हमेशा है सर पर मेरे
सामने आप के मैं भी हाज़िर रहूँ
बा-अदब बा-क़रीना तो क्या बात है

इस तरह आ’ला हज़रत का परचम उठे
इस तरह आ’ला हज़रत का ना’रा लगे
जिस की हैबत से हर दुश्मन-ए-दीन का
छूट जाए पसीना तो क्या बात है

दीप रौशन हो हर दिल में ईमान का
काश ! हर कोई हाफ़िज़ हो क़ुरआन का
हर किसी का कलाम-ए-ख़ुदा से अगर
जगमगाए जो सीना तो क्या बात है

ऐ शु’ऐब ! अपनी क़िस्मत पे तू नाज़ कर
हक़ त’आला की रहमत पे तू नाज़ कर
तुझ को इस ‘उम्र में ना’त-ए-सरकार का
मिल गया है ख़ज़ीना तो क्या बात है

ना’त-ख़्वाँ:
फ़हीम अख़्तर बरेलवी
शमीम रज़ा फ़ैज़ी
शुऐब रज़ा वारसी